गृहारम्भ

वास्तु भूमि पर गृह निर्माण हेतु कार्यारम्भ करना अथवा गृह-निर्माण के लिए उसकी नीवं रखना गृहारम्भ कहलाता है। धर्म, अर्थ एवं काम को प्रदान करने वाला, शीत, वृष्टि एवं अताप का निवारण कर सुविधा और सुरक्षा प्रदान करने वाला गृह, सुख का अधिष्ठान होता है। ऐसे सुख के अधिष्ठानस्वरूप गृह का निर्माण एक महत्वपूर्ण कार्य है। अतः इसका शुभारम्भ शुभ मुहूर्त में करना चाहिए। सामान्यतः गृहारम्भ में भद्रा, गुरू-शुक्रास्त काल, अधिकमास, क्षयमास, तिथिवृद्धि, तिथिक्षय, ग्रहणकाल, संक्रान्ति, विष्कुम्भादि योगों के वर्जित काल, क्रूर गुहयुति, क्रूर गृहवेधादि दोषों से रहित काल को ही लिया जाता है।

 

मासशुद्धि:-

गृह-निर्माण का कार्य प्रारम्भ करने के लिए मासशुद्धि के सन्दर्भ में वास्तुग्रन्थों में कहा गया है कि-चैत्रमास में गृह कार्य आरम्भ करना से शोक, वैशाख में धन प्राप्ति, ज्येष्ठ में मृत्यु का भय, अषाढ़ में पशुहरण, श्रावण में पशुवृद्धि, भाद्रपद में शून्यता, आश्विन मास में कलह, कार्तिक मास में मृत्यु व नाश, मार्गशीर्ष एवं पौष में अन्न लाभ, माघ में अग्निदाह का भय एवं फाल्गुन मास में घर बनवाने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। गृह निर्माण करने वाले महीने-वैशाख मास, श्रावण, मार्गशीर्ष एवं फाल्गुन महीना गृहराम्भ हेतु उत्तम मास है। मतानतर से कार्तिक एवं माघ महीने में गृहारम्भ नहीं करना चाहिए।

कृष्ण पक्ष की पंचमी:-

शुभ पक्ष:-श्राद्ध पक्ष एवं त्रयोदशदिन पक्ष को छोड़कर शुक्ल पक्ष तथा कृष्ण पक्ष की पंचमी तक गृह निर्माण करना श्रेष्ठ होता है।

शुभ तिथि:-गृहारम्भ में 2, 3, 5, 6, 7, 10, 11, 12, 13 एवं 15 तिथियां शुभ होती है। अर्थात प्रतिपदा, रिक्ता, अमावस्या और अष्टमी को छोड़कर शेष सभी तिथियां शुभ मानी जाती है।

शुभ दिन:-सोमवार, बुधवार, गुरूवार, शुक्रवार एवं शनिवार गृहारम्भ के अच्छे माने जाते है। रविवार और मंगलवार को त्याग देना चाहिए।

शुभ नक्षत्र

रोहिणी, मृगशीर्ष, हस्त, चित्रा, स्वाति, अनुराधा, उत्तराषाढ़, उत्तराभाद्रपद, धनिष्ठा, शतभिषा एवं रेवती नक्षत्र गृहारम्भ में शुभ होते है। कुछ आचार्यो के मत में पुष्य एवं पुनर्वसु नक्षत्र भी ग्राहय माने गये है। गृह के मुख्य द्वार की दिशा के अनुसार भी गृहारम्भकालीन शुभ नक्षत्रों का निर्णय 'दिग्द्वारनक्षत्रचक्र' द्वारा करने का निर्देश मुहूर्त ग्रन्थों में दिया गया है। शलाका सप्तके देयं कृतिकादि क्रमेण च। वामदक्षिणभागं तु प्रशस्तं शान्तिकारकम्।। अग्रे पृष्ठे न दातव्यं यदीच्छेच्छेयमात्मनः। ऋक्षं चन्द्रस्य वास्तोश्च ह्रग्रे-पृष्ठे न शस्यते।।

पृष्ठस्थ नक्षत्र

अर्थात कृतिका से आरम्भ करके सात-सात नक्षत्र पूर्वादि दिशाओं में विभाजित है। पूर्वद्वार गृह के लिए कृतिका से अश्लेषा तक सम्मुखस्थ नक्षत्र और पश्चिमाभिमुख द्वार के लिए पृष्ठस्थ नक्षत्र होंगे। अतः कृतिकादि सात-सात नक्षत्र पूर्वादि दिशाओं के दिग्द्वार नक्षत्र है, उनमें सम्मुख व पीछे के नक्षत्रों में गृहारम्भ निषिद्ध व दक्षिण, वाम भाग के नक्षत्रों में गृहारम्भ विहित है।